Saturday, June 27, 2015

इतना कचरा तो हम खा ही सकते हैं क्या फर्क पड़ता है।

खबरी -- लगातार खबरें आ रही हैं की खाने पीने का सामान बेचने वाली जिस कम्पनी का सैम्पल टेस्ट करो, खराब निकलता है।


गप्पी -- अख़बारों में रोज किसी ना किसी कम्पनी के खाने पीने सामान की क्वॉलिटी घटिया होने की खबरें हैं। रोज कोई न कोई गैर-सरकारी संस्था किसी बड़ी कम्पनी का कोई सैम्पल टेस्ट करती है और पता चलता है की इसमें ऐसी चीजें हैं जो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हैं। अख़बार उसे छाप देते हैं और कम्पनी उसका खण्डन कर देती है। कई दिन मामला जब तूल पकड़ लेता है सरकारी विभाग अपने इंस्पैक्टर को कहता है की अब पीछा छूटने वाला नही है इसलिए तुम भी सैम्पल ले ही लो। अब किसी किसी इंस्पैक्टर को तो दस साल की नौकरी के बाद ये भी पता नही होता की सैम्पल लिया कैसे जाता है। वो किसी सीनियर को फोन करके पूछता है फिर सैम्पल लेने का सामान नही मिलता है। वह बाजार से नया सामान खरीदता है और सैम्पल ले लेता है। उसके बाद बड़ा अफसर टीवी में बयान  दे देता है की हमने सैम्पल ले लिया है और अगर खराब निकला तो उसके खिलाफ  कार्यवाही होगी। अब लैब वालों की आफत शुरू होती है। लैब में ना सामान है और ना किसी को ये मालूम है की इसकी जाँच कैसे होगी। हमे इसकी आदत ही नही है।

                 लेकिन बात ये नही है। बात दरअसल ये है की क्या हमे मालूम नही है की ये सामान खाने लायक नही है। मालूम है। हम राशन का अनाज लेते रहे है जो कभी खाने लायक नही होता। जो अनाज गोदाम में खराब हो जाता है वो राशन की दुकानो पर भेज दिया जाता है। जो सही है उसे अगले साल खराब होने के बाद भेजेंगे। सरकार को भी मालूम है की अनाज खाने लायक नही है लेकिन समझती है की सब खा लेंगे। हमे भी मालूम है की खाने लायक नही है लेकिन सोचते हैं की चलो खा लेते है क्या फर्क पड़ता है। असल सवाल यही है की हमे फर्क नही पड़ता।

                   अख़बारों में रोज आता है की सैंकड़ों दवाईया ऐसी हैं जो जहां बनती हैं वहां उसी देश  में उसे बेचने पर पाबन्दी है। लेकिन हमारे यहां बिकती है धड़ल्ले से। सरकार को मालूम है लेकिन क्या फर्क पड़ता है। हमारे देश से बहुत सा सामान बाहर के देशों में बेचने के लिए भेजा जाता है परन्तु फेल हो जाने के कारण वापिस आ जाता है और हमे बेच दिया जाता है। हम खा लेते हैं क्या फर्क पड़ता है।

                      अभी दिल्ली की खबर है की वहां के रेहड़ी पर बिकने वाले खाने के सामान से लेकर कनॉट पैलेस के महंगे रेस्तरां तक सबके खाने में ई-कोली नाम का बैक्टीरिया बहुत बड़ी मात्रा में पाया गया। ये बैक्टीरिया आदमी की विष्ठा ( Human sit ) में पाया जाता है लेकिन हम खा लेते हैं क्या  फर्क पड़ता है। अजीब नजारा है। टीवी चैनल का पत्रकार रेंस्तरां में सवाल पूछ रहा है रिपोर्ट दिखा रहा है। लोग किसी टीवी सीरियल की तरह उत्सुकता से देख रहे हैं लेकिन साथ साथ जो खरीदने आये थे वो खरीद भी रहे हैं। एक भी आदमी सवाल नही करता, खरीदने से इंकार नही करता। उससे पूछो तो कहेगा की क्या फर्क पड़ता है।

                     पहले मुझे लगता था की गरीब लोग इस सामान का इस्तेमाल करते हैं। अपनी रहन-सहन की परिस्थितियों के कारण उनमे इसकी चेतना कम है, इसका विरोध कम है। लेकिन अब तो महंगे से महंगे रेंस्तरां और दुकानो पर बिकने वाले सामान की ये हालत है। इस सामान को खरीदने वाले अपर क्लास कही जाने वाली क्लास के लोग भी बिना किसी एतराज के इसे खरीद रहे हैं और खा रहे हैं।

                        हमारे देश का एक वर्ग दूसरे देशों के लोगों को सफाई के मामले में अपने से निम्न समझता  हैं। उनके  घर की रसोइयों का रख-रखाव मंदिरों की तरह किया जाता है। वे  इस बात का बहुत बखान करते हैं की वे  घर में भी जूते निकाल कर प्रवेश करते हैं। अपने बरतनों को किसी को छूने भी नही देते। कोई दलित समाज का आदमी अगर छू दे तो आग में से निकालते हैं। तीन चार दिन पहले तो ये खबर भी आई थी की एक दलित लडकी को इसलिए पीट दिया गया की उसकी परछाई किसी के टिफिन पर पड़ गयी थी। लेकिन टिफिन के अन्दर क्या  है इससे क्या फर्क पड़ता है।

                       कई माएँ अपने बच्चे की तारीफ करते हुए कहती हैं की इसे तो नास्ते में सिर्फ मैगी चाहिए। वो ये बात इतने गर्व से कहती हैं जैसे उसका बच्चा शिवाजी है और मैगी सिंहगढ़ का दुर्ग है। फ़ास्ट फ़ूड सम्पन्नता का प्रतीक हो गया है। लोग मैकडोनाल्ड, KFC, Dominos का खाना इस तरह कहते हैं जैसे वो इनमे हिस्सेदार हों। फिर सारा दिन मिलने वालों को बताते रहते हैं की आज मैकडोनाल्ड में गए थे। 

                     मुझे नही मालूम इस सबके पीछे हमारा अज्ञान है या अहँकार है लेकिन हमे फर्क नही पड़ता। 

 

                      

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