Tuesday, August 4, 2015

Vyang -- राजनैतिक पार्टियों में लोकतंत्र का डीएनए

खबरी -- ये कैसे मालूम हो की किसी पार्टी में लोकतंत्र का डीएनए है या नही ?


गप्पी -- सवाल बहुत मुश्किल है। अभी तक कोई जाँच सामने नही आई है जो ये बता सके की इस पार्टी में लोकतंत्र का डीएनए है या नही। अभी तक केवल कुछ मान्य सिद्धान्त हैं जो ये समझाने का प्रयास करते हैं की किसी पार्टी की लोकतंत्र के बारे में क्या राय है। अब हमारे देश में ही ले लो। यहां विज्ञापनी लोकतंत्र चल रहा है। जो पार्टी विज्ञापन पर 100 करोड़ महीना खर्च करती है वो 20 करोड़ खर्च करने वाले को अलोकतांत्रिक बता रही है। जो पार्टियां विज्ञापन पर खर्च करने की हैसियत नही रखती उनको समझ नही आ रहा है की वो लोकतंत्र पर अपनी बात कहें कैसे। 

 

खबरी -- लेकिन बीजेपी ने कहा है की चूँकि कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष सोनिया और राहुल हैं इसलिए इस पार्टी के डीएनए में ही लोकतंत्र नही है। 


गप्पी -- लेकिन सोनिया और राहुल कांग्रेस के इन पदों पर कांग्रेस की मर्जी से हैं। अगर उनके परिवार की वजह से बीजेपी ऐसा कह रही है तो उसे ये भी बताना चाहिए की सीधे राजघराने से आई हुई वशुन्धरा राजे कैसे लोकतान्त्रिक हैं। ऐसे और भी बहुत से लोग हैं बीजेपी और दूसरी पार्टियों में। बीजेपी के सहयोगियों में से एक बाला साहेब ठाकरे तो बड़े गर्व से कहते थे की महाराष्ट्र की सरकार का रिमोट उनके पास है। और हमने बीजेपी नेता प्रमोद महाजन को इस पर तालियां बजाते देखा है। मठों और अखाड़ों के साधु संसद के सदस्य हैं, वो कौनसे लोकतान्त्रिक मूल्यों से मठों के अध्यक्ष बने थे। 


खबरी -- लेकिन जो लोग पारिवारिक पृष्ठभूमि से नही आते उनमे कुछ तो लोकतान्त्रिक मूल्य दूसरों से ज्यादा होते होंगे ?


गप्पी -- हिटलर और मुसोलिनी किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि से नही आये थे लेकिन उनके लोकतंत्र को पूरी दुनिया ने भुगता है। दुनिया में ऐसे ऐसे हत्यारे शासक रहे हैं जिनका नाम सुन कर रूह काँप जाती है लेकिन उनकी कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि नही रही। सो ये मापदण्ड पूर्णतया सही नही लगता। संसदीय लोकतंत्र की शुरुआत करने वाले ब्रिटेन में आज भी महारानी संवैधानिक मुखिया है। 


खबरी -- लेकिन किसी शासन में आम लोगों की हिस्सेदारी से तो वहां के लोकतंत्र की स्थिति का पता चलता होगा ?


गप्पी -- ये एक सही मापदण्ड हो सकता था। लेकिन अब हमारे देश में ही लो। यहां लोगों की हिस्सेदारी केवल वोट देने तक सिमित रह गयी है। चुनाव लड़ने को इतना महंगा कर दिया गया है की 95 % जनता उससे बाहर हो गयी है। उसके बाद अगर कुछ लोग बच जाते हैं तो चुनाव का वातावरण धर्म और जाती के नाम पर इतना दूषित कर दिया जाता है की सही चुनाव सम्भव ही नही रहता। उसके बाद चुनी हुई संसद और विधान सभाओं में सत्ताधारी पक्ष बहुमत का प्रयोग करके विपक्ष को लगभग अस्तित्वहीन कर देता है। बिना विपक्ष की मौजूदगी के बिल पास कर लिए जाते हैं। मुझे नही लगता इसमें स्वस्थ लोकतंत्र के कोई लक्षण हैं। 


खबरी -- तो इस देश में बचे खुचे लोकतंत्र को बचाने का कोई रास्ता है या नही ?


गप्पी -- एक रास्ता है लेकिन वो लागु नही हो सकता। संसद में कानून बना कर 90 % सीटें उन लोगों के लिए आरक्षित कर दी जाएँ जिनकी सालाना आमदनी दो लाख से कम हो। सारे राजघराने, सारे मठाधीश, सारे भूतपूर्व नेताओं के रिश्तेदार, सारे कॉर्पोरेट के महारथी और सारे माफिया तत्व 10% में रह जायेंगे। 


खबरी -- इसका कानून तो नही बन सकता, लेकिन लोग चाहें तो इसे अपने स्तर पर लागु कर सकते हैं।

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