Wednesday, January 13, 2016

CPI(M) द्वारा गठबंधन के संकेत और उन पर उठते हुए सवाल

      सीपीएम के कोलकाता प्लेनम के दौरान वक्त की जरूरत के हिसाब से राज्यों में दूसरी पार्टियों के साथ गठबंधन करने के संकेत दिए गए हैं। इसके साथ ही उसकी इस रणनीति पर सवालों और आलोचनाओं की बाढ़ आ गयी है। खासकर कांग्रेस के साथ बंगाल में गठबंधन को एक तबके द्वारा भारी गलती बताया जा रहा है। जो लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं उनमे कई तरह के लोग शामिल हैं। इनमे पार्टी के कुछ ऐसे कार्यकर्ता हैं जो कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों को भूले नही हैं और जिनके दिमाग में कांग्रेस के साथ गठबंधन एकदम आश्चर्यजनक चीज है। इनमे कुछ पार्टी और मार्क्सवाद के जानकर लेकिन पार्टी से अलग हो चुके लोग जैसे JNU के भूतपूर्व SFI नेता परशेनजीत  बोस इत्यादि हैं। साथ ही इनमे कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनको ये गठबंधन अपने खिलाफ दिखाई देता है। सवाल ये है की जिन आधारों पर इसकी आलोचना की जा रही है उनमे कितना दम है ?
          इसमें पहला सवाल ये उठाया जा रहा है की ऐसी कोई भी कोशिश वाम एकता को कमजोर करेगी। लेकिन सीपीएम ने पहले ही ये साफ किया है की वाम एकता उसके लिए पहली जरूरत है और इसे कोई नुकशान पहुंचाए बिना ही ऐसी संभावनाओं पर विचार किया जायेगा। सो सीपीएम की कोई मंशा वाम एकता को कमजोर करने की नही है।
           दूसरा सवाल कांग्रेस के वर्ग चरित्र को लेकर है। लेकिन जहां तक वर्गचरित्र का सवाल है तो वो तो बाकी सभी पार्टियों का वही है फिर चाहे वो जनता दल हो या समाजवादी पार्टी हो या फिर डी एम के हो। सीपीएम हमेशा इनमे से किसी ना किसी के साथ चुनावी तालमेल करती रही है।
            तीसरा सवाल विशुद्ध रूप से सैद्धांतिक है। क्या ऐसा गठबंधन मार्क्सवाद के खिलाफ होगा। इस पर विचार करने से पहले हमे देश के मौजूदा हालात का जायजा लेने की जरूरत है। आज देश में बीजेपी अपने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है। उसका साम्प्रदायिक और फासिस्ट एजेंडा खुलकर सामने है। देश में भाईचारे और लोकतंत्र पर इस तरह का हमला पहले कभी नही हुआ। पुरे देश के शिक्षा संस्थानों में भगवा एजेंडा लागु किया जा रहा है। देश के धर्मनिरपेक्ष तबके को धक्के दे कर इनसे बाहर किया जा रहा है। भृष्टाचार के सवाल पर सरकार कुछ भी सुनने को तैयार नही है। जनता और मजदूरों के हित के कानूनों को बदलने की कोशिश की जा रही है। इससे निपटने में वामपंथ के पास जरूरी ताकत नही है। संसद में सरकार की मनमर्जी को रोकने के लिए वाम, कांग्रेस और दूसरे धर्मनिरपेक्ष दलों के तालमेल से इसे राज्य सभा में थोड़ा बहुत रोका गया है और इस तालमेल का देश की जनता ने स्वागत किया है।
              दूसरा उदाहरण हमारे सामने बिहार चुनाव का है। जिसमे आदर्शवादी रुख अपनाते हुए एक तबके ने नितीश को लालू प्रशाद के साथ गठबंधन ना करने की सलाह दी थी। लेकिन बिहार की स्थिति को देखते हुए नितीश कुमार ने लालू प्रशाद के साथ गठबंधन किया और उसे बिहार के लोगों का जबरदस्त समर्थन हासिल हुआ। जो लोग इस गठबंधन के विरोध में थे वो भी जब इस पर विचार करते वक्त ये अनुमान करते हैं की इस तरह का मूर्खतापूर्ण आदर्शवादी रुख राज्य में बीजेपी की सरकार बनवा सकता था। बीजेपी की सरकार से लालू-नितीश गठबंधन की सरकार लाख दर्जे बेहतर है।
                जहां तक बंगाल का सवाल है वहां वामपंथी कार्यकर्ताओं पर हुए हमलों में लगभग 200 कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं। पुरे बंगाल में सत्ता के करीबी गुंडा तत्वों का आतंक है। ममता बैनर्जी और बीजेपी दोनों बंगाल के वातावरण का साम्प्रदायिक आधार पर धुर्वीकरण की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे हालात में अगर ये सम्भव होता है की ममता और बीजेपी को रोकने के लिए कोई राज्य स्तरीय गठबंधन हो सकता है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। लोगों को मरते हुए छोड़कर अतिआदर्शवादी रुख कहां की समझदारी है।
                 जहां तक इसके बारे में केरल में जवाब देने का सवाल है तो ये जवाब तो कांग्रेस और सीपीएम दोनों को देना है। जहां तक लोगों को इसके बारे में सफाई देने की बात है तो लोग किसी भी राजनैतिक सिद्धांतकार से ज्यादा और अच्छे तरीके से राजनीती समझते हैं। लोगों को अपनी व्यवहारिक मुश्किलों का करीबी अहसास होता है।
                 इसलिए अगर तात्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस तरह का तालमेल सम्भव है तो वो व्यवहारिक रूप से फायदे का सौदा है।

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