Monday, March 28, 2016

उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाना Cooperative Federalism तो छोडो Federal Fair Play भी नहीं है।

               उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के बाद इस पर बहुत ही तीखी प्रतिक्रिया सामने आई है। कुछ लोग इसे केंद्र सरकार की तानाशाही की तरह देख रहे हैं। दूसरी तरफ बीजेपी के प्रवक्ता इस पर सफाई देने में पूरी ताकत लगा रहे हैं। उसके बावजूद वो इस बात की सफाई नहीं दे पा रहे हैं की राज्य पाल द्वारा मुख्य्मंत्री को विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने का आदेश दिए जाने के बावजूद उससे एक दिन पहले ही सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लगाना किस तरह जायज है।
                लेकिन इस पर कुछ टीवी चैनलों में जिस तरह की बहस हो रही है वो एकदम गए गुजरे स्तर की है। कुछ टीवी चैनल के पत्रकार खुद को तठस्थ दिखाने की कोशिश में इस तरह के कोमेन्ट कर रहे हैं जो बहुत ही हल्के स्तर के हैं। सरकार का सारा कामकाज संवैधानिक प्रावधानों की बदलती हुई व्याख्या के अनुसार होता है। आज देश में कोई कानून है तो उसके अनुसार सजाएं भी होंगी और कार्यवाही भी होगी। बाद में अगर उस कानून को रद्द कर दिया जाये तो पिछली सरकार पर ये आरोप नहीं लगाया जा सकता की उसने उस कानून के तहत कार्यवाही की थी। सरकार का कोई भी फैसला जब न्याययिक स्क्रूटिनी से गुजरता है तो उस समय के हालात और नए संदर्भों में उसकी समीक्षा होती है जिसमे कुछ नई चीजें सामने आती हैं। इसी तरह आर्टिकल 356 के प्रयोग को लेकर भी इस तरह के बदलाव होते रहे हैं।
                सबसे पहले सरकारिया आयोग की रिपोर्ट में जो 1987 में आई थी इस पर बहुत विस्तार से विचार किया गया और कुछ नियम तय किये गए जिससे संविधान के संघीय ढांचे को नुकशान पहुंचाए बिना केंद्र के इस अधिकार पर कुछ पाबंदियां लगाई गई और इसे पारदर्शी बनाने के तरिके सुझाए गए। इसके बाद धारा 356 के मनमाने प्रयोग या दुरूपयोग की संभावनाओं पर लगाम लगी। उसके बाद 1994 में जब एस आर बोममई केस  में सर्वोच्च अदालत का फैसला आया तो उसमे लगभग हर स्थिति  निपटने और राज्य पालों के अधिकार समेत कई चीजें निधारित कर  दी। उसके बाद धारा 356 के किसी भी उपयोग को नए तरिके से देखा जाने लगा। इसलिए उससे पहले के फैसलों और उसके बाद के फैसलों के बीच  एक गुणात्मक अंतर् है और इसे बहस करने वाले हर व्यक्ति को ध्यान में रखना चाहिए।
                 उत्तराखंड में 356 के प्रयोग को उपरोक्त दोनों संदर्भों के अनुसार सही नहीं माना जा रहा। बीजेपी के अलग अलग प्रवक्ता इस पर अलग अलग वक्तव्य दे रहे हैं। अभी तक ये बात सामने नहीं आई है की केंद्र सरकार ने राजयपाल की रिपोर्ट के किस पहलू को आधार बना कर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की है। लेकिन बीजेपी के प्रवक्ता इस पर तीन चार तरह के तर्क दे रहे हैं। उसमे पहला ये है की मुख्यमंत्री एक विडिओ में दिखाई दे रहे हैं जिसमे कथित रूप से विधायकों की खरीद फरोख्त की बात है। लेकिन बिना किसी न्यायालय द्वारा इस पर दोषी ठहराए किसी सरकार को बर्खास्त करना बहुत ही लचर आधार है। दूसरा कारण ये दिया जा रहा है की स्पीकर ने बजट को बिना वोटिंग के पास कर दिया जो की नियमों के खिलाफ है। अब इस स्थिति के दो पहलू हैं। एक स्पीकर की गलती, जिसके अनुसार आप स्पीकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं और दूसरा अगर आपको शक है की सरकार के पास बहुमत नहीं है तो आप या तो विधानसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं या फिर राजयपाल से सरकार को बहुमत साबित करने के लिए कह सकते हैं। बीजेपी और बागी विधायकों ने दूसरा रास्ता चुना। उस पर राज्य पाल ने मुख्य्मंत्री को बहुमत सिद्ध करने का आदेश दे दिया। अब बीजेपी का ये कहना की राज्य पाल द्वारा ज्यादा समय दिया जाना ही गलत था तो ये तो राज्य पाल के अधिकार पर ही सवाल उठाने की बात है। लेकिन इसे कम से कम राष्ट्रपति शासन का आधार तो नहीं ही बनाया जा सकता है।
                    तीसरा तर्क ये दिया जा रहा है की स्पीकर ने नौ विधायकों की सदस्य्ता गलत तरिके से रद्द कर दी। इसके खिलाफ आप कोर्ट में जा सकते हैं और इस बिना पर राष्ट्रपति शासन कैसे लगाया जा सकता है। अभी राष्ट्रपति शासन लगाने का आधार सामने नहीं आया है और उसके कोर्ट की कार्यवाही के दौरान सामने आने की सम्भावना है लेकिन अभी तक राजनैतिक विश्लेषकों को उसका एक भी मजबूत कारण दिखाई नहीं देता है। बीजेपी का व्यवहार ऐसा  है जैसे वो कह रही हो की अगर सरकार होगी तो हमारी होगी वर्ना किसी की नहीं होगी। जो आदमी इस बारे में संवैधानिक स्थिति के बारे में तकनीकी और क़ानूनी जानकारी प्राप्त करना चाहता है उन्हें चाहिए की वो इस बारे में 1997 में Frontline में छपे जाने मने लेखक परवीन स्वामी का लेख पढ़ लें। इसका लिंक मैं दे रहा हूँ। http://www.frontline.in/static/html/fl1422/14220170.htm  इसमें उन सभी पहलुओं की विस्तार से चर्चा की गई है।
                  अगला सवाल बीजेपी की नियत का है। अगर उसकी इच्छा तोड़फोड़ या खरीद फरोख्त से सरकार बनाने की नहीं है तो उसने विधानसभा को निलम्बित करके रखने की बजाय उसे भंग करना चाहिए था। कानून की तकनिकिओं को विपक्ष की सरकार गिराने और जबरदस्ती अपनी सरकार लादने के लिए प्रयोग करना तो लोकतंत्र की हत्या ही माना जायेगा।

No comments:

Post a Comment

Note: Only a member of this blog may post a comment.