Monday, August 22, 2016

दुर्घटना बीमा पर सीमा तय करना न्याय और सुरक्षा के बुनियादी सिद्धान्त के ही खिलाफ है।

                 केंद्र सरकार ने मौजूदा  सत्र में मोटर व्हिकल ( अमैंडमैंट ) एक्ट का जो प्रस्ताव लोकसभा में दिया है उसकी समझ बहुत चिंता पैदा करती है। सरकार ने इसमें जुर्माना बढाये जाने पर ही सारा ध्यान केंद्रित किया है। उसे लगता है जैसे भारी भरकम जुर्माना लगाए जाने मात्र से दुर्घटनाओं में कमी हो सकती है। जबकि ट्रेनिग और दूसरे उपायों पर बात ही नही की गयी है। इसके साथ ही इसमें जो बदलाव सबसे गम्भीर सवाल उठाता है वो ये है की दुर्घटना की सूरत में बीमा कम्पनियों की क्लेम भुगतान की जिम्मेदारी अधिकतम 10 लाख तक तय कर दी गयी है। अदालत द्धारा इससे अधिक क्लेम स्वीकार किये जाने की सूरत में बाकि के भुगतान की जिम्मेदारी वाहन के मालिक की होगी। सरकार का तर्क है की इससे बीमा कम्पनियों पर बोझ कम होगा।
                   आखिर सरकार को बीमा कम्पनियों के बोझ की इतनी चिंता क्यों है? जब से बीमा के क्षेत्र में प्राइवेट कम्पनियों की हिस्सेदारी बढ़ रही है तब से सरकार की ये चिंता भी बढ़ गयी है। बीमा कम्पनियां प्रीमियम लेकर क्लेम की जिम्मेदारी लेती हैं, वो कोई सामाजिक कार्य थोड़ा न कर रही हैं जो सरकार उनकी चिंता में दुबली हुई जा रही है। इस फैसले के कुछ गम्भीर निहितार्थ हैं जिन्हें अनदेखा नही किया जा सकता।
                    वाहन के लिए थर्ड पार्टी दुर्घटना बीमा की शुरुआत जिन जरूरतों को ध्यान में रखकर की गयी थी, ये  बदलाव उसके ठीक उल्ट है। हमारे देश में सालाना करीब डेढ़ लाख लोग वाहन दुर्घटनाओं के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ये एक नए किस्म की  सामाजिक समस्या है। सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले अधिकतर लोग वो होते हैं जिन पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी होती है। अक्सर कमाऊ सदस्य ही ज्यादातर सड़क पर होते हैं। कमाऊ सदस्य की दुर्घटना में मौत हो जाने पर एक पूरा परिवार बर्बादी के कगार पर पहुंच जाता है। इस समस्या को देखते हुए थर्ड पार्टी दुर्घटना बीमा को अनिवार्य किया गया था। क्योंकि उसके ना होने पर मृतक के परिवार को राहत मिलना बहुत मुश्किल होता था। कई मामलों में तो ये सम्भव ही नही होता था। या तो वाहन चालक या मालिक के पास भुगतान  के लिए कोई पैसा ही नही होता था ,या फिर फैसले और अपीलों में मामला लटक जाता था। इसलिए ये व्यवस्था की गयी थी की दुर्घटना में हुए नुकशान की भरपाई बीमा कम्पनी कर दे और मृतक के आधारहीन परिवार को आसरा हो जाये। इसके लिए वाहन के मालिक को  एक निश्चित रकम का भुगतान बीमा कम्पनी को हर साल करना होता है।
                     लेकिन अब बीमा कम्पनियों के बोझ को कम करने के लिए इस भुगतान की अधिकतम सीमा 10 लाख रखने का प्रस्ताव किया गया है। जिसका व्यावहारिक मतलब ये होगा की उससे ज्यादा के क्लेम की सूरत में प्रभावित परिवार को फिर उसी स्थिति में खड़ा कर दिया जायेगा जो इस व्यवस्था के लागु होने से पहले थी। पूरी दुनिया में इस तरह की व्यवस्था कहीं नही है।
                      इस प्रस्ताव के पीछे जो तर्क दिए जा रहे हैं वो ठीक वैसे ही हैं जैसे अमेरिका न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पर दे रहा था। उसकी मांग थी की न्यूक्लियर दुर्घटना की स्थिति में कम्पनी पर एक निश्चित स्तर तक ही भुगतान की जिम्मेदारी डाली जाये। जिसका पुरे देश के जानकार हलकों में भारी विरोध हुआ था।
                       ये भी अपने आप में एक संयोग ही है की कम्पनियों पर जिम्मेदारी के मामले में हमारी सरकार और अमेरिकी सरकार की समझ में कितना तालमेल है। इसलिए सरकार को इस प्रस्ताव को वापस लेने के लिए मजबूर किया जाये और विपक्षी पार्टियों और जन संगठनों को इसका पुरजोर विरोध करना चाहिए।

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