Monday, March 20, 2017

राजनीति के मूढ़मतियों का पश्चाताप।

                  राजनीति में कुछ मूढमति होते हैं। वैसे तो मूढमति हर जगह होते हैं लेकिन लोकतंत्र में राजनीती के मूढ़मतियों की एक खास जगह होती है। ज्यादातर लोकतंत्र इन्ही के सहारे जिन्दा रहते हैं। अगर ये न हों तो चुनाव जीतना तो दूर, चुनाव करवाना भी मुश्किल हो जाये। इनकी एक पहचान है। इन्हें मीडिया के सहारे कुछ चीजें समझा दी जाती हैं। फिर कोई दूसरा लाख सिर पटक ले ये टस से मस नही होते। आप कितने ही तर्क, कितने ही उदाहरण दे लो, ये अपनी जगह से नही हिलते। इन्ही में से विकास करके कुछ लोग भक्त की श्रेणी में पहुंच जाते हैं और वापिस आने के सारे रास्ते बन्द कर लेते हैं।
                    इन मूढ़मतियों की एक खाशियत ये भी होती है की ये अपने किये पर पछताते जरूर हैं। जैसे किसी पार्टी को वोट देंगे, और फिर कहते फिरेंगे की मैं तो इसे वोट देकर पछता रहा हूँ। कोई कोई तो वोट डालकर बूथ से बाहर निकलने से पहले ही पछताना शुरू कर देते हैं। कुछ लोग पछताने में दो चार दिन का समय लेते हैं।
                    अब एक मूढमति मेरे मुहल्ले में रहते हैं। कल आ धमके घर पर। बोले की मैं तो बीजेपी को वोट देकर पछता रहा हूँ। मैंने पूछा क्यों तो बोले की उन्होंने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया। अरे, इससे तो अखिलेश लाख दर्जा अच्छा था।
                     " तो आप क्या चाहते थे की बीजेपी अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाये ?" मैंने पूछा।
                      " लेकिन किसी दूसरे को बनाया जा सकता था। अगर मुझे पता होता की ये योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाएंगे तो मैं कभी इन्हें वोट नही देता। " उसने जोर देकर कहा।
                     " योगी आदित्यनाथ बीजेपी का ही सदस्य है कोई बाहर से तो लाये नही हैं। और फिर किसी दूसरे से तुम्हारा मतलब किस्से है, संगीत सोम से है, साध्वी प्राची से है, विनय कटियार से है ? आखिर तुम किसे बनाना चाहते थे ?" मैंने पूछा।
                     " इनके अलावा भी लोग हैं। किसी साफ सुथरी छवि वाले, नरम स्वभाव के, पढ़े लिखे और सबको साथ लेकर चलने वाले आदमी को बना सकते थे। " उसने जवाब दिया।
                     ' अगर उनके पास ऐसा कोई आदमी होता तो वो पहले ही उसे मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नही कर देते। जब उन्होंने उम्मीदवार घोषित नही किया तो इसका मतलब है की वो किसी को भी बना सकते हैं। " मैंने कहा।
                     ' लेकिन समाज को लड़ाने भिड़ाने वाला आदमी अच्छा नही होता है। " उसने निराशा जाहिर की।
                    " तो तुम पहले पूछ लेते की भाई किसको बनाओगे ? या फिर कोई दूसरी पार्टी ढूंढ लेते। " मैंने कहा।
                     " इसीलिए तो पछता रहा हूँ। वैसे हमने 325 लोग चुने थे। उन्होंने एक मुख्यमंत्री और दो उप मुख्यमंत्री बनाये, लेकिन चुने हुए लोगों में से एक भी नही है। ये तो वही बात हुई की तुम सैम्पल कुछ और दिखाओ और पैसे लेने के बाद माल कोई दूसरा पकड़ा दो। " उसने उदाहरण के साथ अपनी बात कह दी।
                   अब ये पछता रहा है। पिछली बार भी पछता रहा था। कह रहा था की मैंने तो मुलायम सिंह के लिए वोट दिया था और इन्होंने अखिलेश को बना दिया। ये तो राजशाही हो गयी। तब भी मैंने पूछा था की जो आदमी पंचायत का मुखिया भी अपने घर से बाहर नही बनाता, उससे तुम क्या उम्मीद कर रहे थे। खैर ये पछताता रहा। अब फिर पछता रहा है।

Thursday, March 16, 2017

भारत में राजनैतिक सवालों पर कॉरपोरेट मीडिया का बदलता रुख।

                     अभी कुछ साल पहले की ही बात है की भारत का कॉरपोरेट मीडिया इस बात पर बहस करता था की चुनाव के बाद में बने हुए गठबंधन ( Post poll alliance ) अनैतिक होते हैं और की इस तरह के गठबंधन चुनाव से पहले ( Pre poll alliance)  होने चाहिए। तब भी वो कोई राजनीती में अनैतिकता के सवाल पर चिंतित नही था। उसकी तब की चिंता थी वामपंथ के समर्थन से बनने वाली UPA सरकारें। तब भारत का कॉरपोरेट क्षेत्र वामपंथ को अपने रस्ते की बड़ी रुकावट मानता था। इसलिए किसी भी तरह वो इस गठबंधन और समर्थन को अनैतिक सिद्ध करने पर लगा रहता था।
                     उसके बाद स्थिति बदली। बीजेपी की सरकारों का दौर शुरू हुआ।  कॉरपोरेट की पसन्दीदा सरकारें थी। इसलिए इनके सारे कारनामो को या तो मजबूरीवश लिए गए फैसले बताना शुरू किया, अगर ये सम्भव नही हुआ तो इतिहास से दूसरे अनैतिक उदाहरण ढूंढे गए और उन्हें सही सिद्ध किया जाने लगा। जब बीजेपी ने जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई, तो राजनैतिक इतिहास के इस सबसे अवसरवादी फैसले को इस तरह पेश किया गया गोया इसके बिना तो देश बर्बाद हो जाता। उस दिन के बाद आपको कभी भी किसी भी न्यूज़ चेंनल पर Post Poll Alliance or Pre Poll Alliance पर कोई चर्चा नही मिलेगी।
                      उसके बाद महाराष्ट्र का उदाहरण सामने आया। किस तरह सत्ता में साझेदार दो पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलती हैं और मलाई में हिस्सेदार भी हैं। उसके बाद ये बहस भी मीडिया से समाप्त हो गयी की क्या एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली दो मुख्य पार्टियां आपस में मिलकर सरकार बना सकती हैं या नही।
                     और अब ताजा उदाहरण है गोवा चुनाव का। जिसमे सभी तरह की नैतिकता और संवैधानिक तरीकों को ताक पर रखकर बीजेपी ने सरकार बना ली। इस मामले पर मीडिया की कवरेज लाजवाब थी।  सारी चीजों को छोड़कर मीडिया बहस को यहां ले आया की गडकरी ज्यादा तेज थे या दिग्विजय सिंह। जैसे ये कोई जनमत और संवैधानिक सवाल न होकर गडकरी और दिग्विजय के बीच 100 मीटर की दौड़ का मामला हो। सारे सवाल खत्म। गडकरी ज्यादा तेज थे सो बीजेपी की सरकार बन गयी।
                      अब बीजेपी के समर्थन में मीडिया सारी बहसों को यहां ले आया की पहले जब ऐसा हुआ था तब कोई क्यों नही बोला ? मुझे तो ऐसा लग रहा है की अगर मीडिया का ऐसा ही रुख रहा ( जो की ऐसा ही रहने वाला है ) तो मान लो कभी मोदीजी को बहुमत नही मिले और वो सेना की मदद से सरकार पर कब्जा कर लें तो मीडिया कहेगा की जब बाबर सेना के बल पर देश पर कब्जा कर रहा था तब तुम कहाँ थे। या मान लो देश के चार पांच बड़े उद्योगपति देश का सारा पैसा लेकर विदेश भाग जाएँ तो मीडिया कहेगा की जब मोहम्मद गौरी और गजनी देश को लूट कर  ले गए थे तब तुम क्यों नही बोले।

Monday, March 13, 2017

क्या जनमत से अलग भी लोकतंत्र का कोई मतलब होता है।

                   लोकतन्त्र कोई तकनीकी अवधारणा नही है। और न ही ये कोई किसी भी तरह, यानि येन केन प्रकारेण प्राप्त किये गए बहुमत का नाम है। पिछले दो दिन में जो कुछ गोवा और मणिपुर में हुआ है वो कम से कम लोकतन्त्र की अवधारणा के तो बिलकुल उल्ट है। यहां सवाल केवल बीजेपी का नही है। क्योंकि बीजेपी जिस संगठन से पैदा हुई है, उसकी लोकतंत्र में कभी आस्था नही रही। वो हमेशा से राजशाही के समर्थक रहे हैं। क्योंकि जिस हिन्दूवादी, वर्णवादी और स्त्री विरोधी शासन और विधान का सपना आरएसएस और बीजेपी देखती रही हैं, वो लोकतन्त्र में सम्भव नही है। इसलिए प्रधानमंत्री ने विजय जलूस में भले ही कुछ भी कहा हो ( हमे और ज्यादा जिम्मेदार और नरम होने की जरूरत है ) उसने गोवा और  मणिपुर में सरकार बनाने के लिए वही अलोकतांत्रिक और भृष्ट तरीके अपनाये और उनके लिए तकनीकी बहाने बनाये। इस पर मैं केवल एक ही सवाल पूछना चाहता हूँ की क्या गोवा और मणिपुर में वही सरकार बन रही हैं जिसके लिए लोगों ने वोट दिया था ?
                    लेकिन यहां सवाल बाकि लोगों का भी है। सबसे पहले कांग्रेस। जो इन चुनावों में सबसे ज्यादा सीट लेकर सरकार बनाने की दावेदार थी। जब बीजेपी ने जनमत को कुचलकर अपनी सरकार बनाई तो उसने क्या किया ? उसके नेता ने केवल ट्वीट किया की माफ़ करना गोवा। कांग्रेस के नेता लोगों को लामबन्द करने और उनके गुस्से की अगुवाई करने में न केवल विफल रहे, बल्कि उन्होंने इसकी कोई इच्छा तक प्रकट नही की।  क्या इस तरह की पार्टी के भरोसे लोकतंत्र की रक्षा होगी ?
                    उसके बाद दूसरा सवाल उन छोटे छोटे दलों का है जो पैसे और लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करके लोगों से जिस पार्टी के खिलाफ वोट लेते हैं, बाद में अच्छी कीमत मिलने पर उसी के घर पानी भरने लगते हैं। अब वक्त आ गया है की बिना किसी ठोस विचारधारा और प्रोग्राम के उग आयी इन पार्टियों को सबक सिखाया जाये। इन विधायको का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। अगर लोग इसी तरह राजनीती के व्यापारियों को चुनते रहेंगे तो हमेशा अच्छी कीमत पर बिकते रहेंगे।
                    इसके अलावा अगला सवाल उन राजनितिक पार्टियों से भी है जो बेसक वहां बड़ी ताकत न हों, लेकिन लोगों को विरोध और धोखाधड़ी के समय कम से कम अपने साथ तो खड़े दिखाई दें।

Sunday, March 12, 2017

मणिपुर मे बंधक लोकतंत्र के मायने।

                    मणिपुर देश के सिरे पर स्थित एक छोटा सा राज्य है जिसकी समस्याओं और खबरों का कोई TRP मूल्य नही है। इसलिए उसकी खबरें दिखाने में मीडिया की कोई रूचि नही होती है। उसकी खबर तभी आती है जब वहां कोई आतंकवादी घटना होती है। अभी अभी सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में ईरोम शर्मिला की उम्मीदवारी के कारण कभी कभी कोई खबर देखने को मिली। चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी 28 सीटें लेकर 60 सीटों वाली सभा में बहुमत से थोड़ी दूर रह गयी। 21 सीटें लेकर बीजेपी दूसरे नम्बर पर रही और अब उसने केंद्र की सत्ता और दूसरे तरीकों का उपयोग करके वहां सरकार बनाने का दावा कर दिया। ये तरीके वो पहले अरुणाचल प्रदेश में भी अपना चुकी है।
                      लेकिन मेरा सवाल वहां के चुनाव और उसके मुद्दों को लेकर है। मणिपुर में नागा उग्रवादी और उनकी समर्थक पार्टियां लम्बी लम्बी आर्थिक नाकाबन्दी करती रही हैं। इस बार चुनाव से कई महीने पहले वहां इसी तरह की आर्थिक नाकाबन्दी कर दी गयी। नाकाबन्दी करने वाली पार्टी नागा पीपुल्स फ्रंट वहां बीजेपी की सहयोगी पार्टी है। जीवन के लिए जरूरी सामान की भारी कमी को झेलते हुए मणिपुर की जनता को चुनाव में बीजेपी वादा करती है की अगर बीजेपी जीती तो फिर कभी मणिपुर में आर्थिक नाकाबन्दी नही होगी। इसका मतलब ये भी है की अगर बीजेपी नही जीती तो ये नाकेबन्दी जारी रहेगी। क्योंकि नाकाबन्दी करने वाली पार्टी और लोग बीजेपी के सहयोगी हैं। दूसरी तरफ केंद्र में बैठी बीजेपी सरकार इस नाकाबन्दी को खत्म करने के लिए कोई गम्भीर प्रयास नही करेगी। इस नाकाबन्दी से परेशान लोगों के एक हिस्से ने बीजेपी को वोट दिया, ठीक उसी तरह जैसे 2002 के दंगों के बाद जान बचाने के लिए गुजरात के मुसलमानो ने बड़ी संख्या में बीजेपी को वोट दिया था।
                      इस तरह मणिपुर में जनता को बंधक बना कर चुनाव जीतने की कोशिश की गयी। दूसरी तरफ वहां की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने वहां की नाकाबन्दी को खत्म करवाने के लिए कोई असरकारक प्रयत्न किया हो ये भी दिखाई नही देता। संसद में छोटे छोटे सवालों पर कार्यवाही रोकने वाली कांग्रेस पार्टी ने इस सवाल पर कभी संसद नही रोकी। कांग्रेस की सरकार अगर कायम है तो उसे मणिपुर के लोगों की तकलीफों से क्या लेना देना है। इसलिए इस बंधक लोकतंत्र के क्या मायने हैं इसे लोगों को ठीक से समझ लेना चाहिए।

अमेरिका में भारतियों पर हमलों को लेकर सरकार के ढीले रुख का कारण।

                  अमेरिका में जब राष्ट्रपति का चुनाव हो रहा था और रिपब्लिकन उम्मीदवार ट्रम्प मुस्लिमों के खिलाफ जहर उगल रहा था, तब भारत में कई संगठन उसकी जीत के लिए हवन कर रहे थे। उन्हें लगता था की ट्रम्प की जीत के बाद मुसलमानो के प्रति उसके रुख से यहां हिंदुस्तान में इन संगठनों की राजनीती और विचारधारा को नया समर्थन मिलेगा। लेकिन जीतने के बाद ट्रम्प ने जिस तरह बाहर से आने वाले हर आप्रवासी पर प्रतिबन्ध लगाने शुरू किये, तो इन संगठनों ने चुप्पी साध ली।
                   असल में ट्रम्प भी उसी कट्टर राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अमेरिका में बेरोजगारी से लेकर आतंकवाद तक हर समस्या का सरलीकरण करके बाहर से आने वाले लोगों को इसका जिम्मेदार मानती है। इसके साथ ही बेरोजगारी और आतंकवाद से जूझ रहे अमेरिकी नोजवानो को एक स्पष्ट दुश्मन दिखला कर उन्हें अपने पक्ष में करना आसान हो जाता है। अब इसमें भारतीय समुदाय भी इसी दुश्मन वर्ग में शामिल हो जाता है। इसलिए एक तरफ सरकार उन पर प्रतिबन्ध लगाने के नए नए कानून बनाती है तो दूसरी तरफ उग्र और अति उत्साही लोग उन पर हमले कर रहे हैं।
                    लेकिन भारतियों पर इतने हमलों के बावजूद, हमारी सरकार की प्रतिक्रिया एकदम बेदम और ढीली ढाली रही है। इसका सबसे बड़ा कारण ये है की सत्ता में बैठा गुट भी उसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। वो लगातार एक धार्मिक समुदाय को देश की समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराता रहा है और उसके खिलाफ राजनीती करके लोगों को गोलबन्द करता रहा है। यहां तो खुद अपने ही देश के दूसरे हिस्सों से गए लोगों पर मुम्बई में हमले होते रहे हैं और हमले करने वाले लोग और पार्टियां मजे से सरकार में हिस्सेदार रही हैं। इसलिए जब हम विचारधारा के रूप में इनका समर्थन करते हैं तो ऐसी घटनाओं पर विरोध करते वक्त मुंह पोपला हो जाता है और आवाज हलक से बाहर नही निकलती।
                     इसका एक बहुत ही शानदार उदाहरण हमारे सामने है। सन 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे। उस समय बीजेपी ने सोनिया गाँधी के विदेशी मूल के मुद्दे को पूरे जोर शोर से उठाया था। यहां तक की उसके बाद के समय में इसी मुद्दे पर शुष्मा स्वराज और उमा भारती अपने सिर के बाल कटवाने की धमकी दे रही थी। ठीक उसी समय 2000 में फिजी में भारतीय मूल के प्रधानमंत्री महेंद्र चौधरी का तख्ता पलट दिया गया। तख्ता पलटने वाले जार्ज स्पेट ने यही कहा की कोई विदेशी मूल का व्यक्ति फिजी का प्रधानमंत्री कैसे हो सकता है। ये वही मुद्दा था जो यहां भारत में बीजेपी और आरएसएस उठा रहे थे। मुझे अच्छी तरह याद है की तब पूरे एक हफ्ते तक भारत सरकार ने कोई प्रतिक्रिया तक नही दी। आखिर में महेंद्र चौधरी को हटा दिया गया और संविधान बदल कर उसमे उसके चुनाव तक लड़ने पर पाबन्दी लगा दी गयी। लेकिन अपनी  गलत विचारधारा के चलते वाजपेयी जी और बीजेपी इसमें कोई हस्तक्षेप नही कर पाई। उनका खुद का थूका हुआ उनके मुंह पर आ गिरा। ठीक यही हालत अब है। इसी पृथकतावादी विचारधारा के चलते ये सरकार इस मुद्दे पर जोर से बोलने का नैतिक साहस ही नही रखती।

Saturday, March 11, 2017

सभी पांच राज्यों में सत्ताधारी पार्टियों की हार।

                 कल सम्पन्न हुए पांच राज्यों के परिणामो से ये बात साबित हुई है की सभी राज्यों में शासन करने वाली पार्टियां हार गयी हैं। इन परिणामो को मीडिया और कुछ दूसरे लोग इस तरह पेश कर रहे हैं जैसे पुरे देश ने नरेंद्र मोदी और बीजेपी के एजेंडे को स्वीकार कर लिया है। कॉरपोरेट मीडिया के सरकार के साथ अपने हित जुड़े हैं और मीडिया समूह के मालिकों के अपने हित जुड़े हैं। इसलिए हमारा कॉरपोरेट लूट में बड़ी छूट पाने के लिए बहुत पहले से नरेन्द्र मोदी का समर्थन करता रहा है। इसलिए मीडिया की हिस्सेदारी ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में बीजेपी की जीत को थोड़ा और शानदार बना दिया है। लेकिन ये बात किसी भी तरह से सही नही है की नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के एजेंडे को पुरे देश ने स्वीकार कर लिया है। अगर ये बात सही है तो ऐसा कहने वाले मीडिया और उसमे बैठे विशेषज्ञों को कुछ सवालों के जवाब देने होंगे। जैसे -

१.  मीडिया बताये की गोवा और पंजाब में जहां बीजेपी और उसकी सहयोगियों की सरकारें थी, वहां वो क्यों हारे ?

२.  हर राज्य में बीजेपी को दूसरे दलों के नेताओं को शामिल करने की जरूरत क्यों पड़ती है ? अगर लोग केवल मोदीजी के साथ हैं तो वो उन बीजेपी के कार्यकर्ताओं को टिकट क्यों नही देते जो सालों से पार्टी के लिए काम तो करते हैं लेकिन बहुत जाने पहचाने नही हैं ?

३. गोवा को बीजेपी अपनी मॉडल स्टेट के रूप में प्रस्तुत करती रही है, वहां उसके मुख्यमंत्री भी हार गए।  ऐसा क्यों हुआ ?

                   इसलिए इन चुनाव परिणामो को उसके सही परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। अगर सत्ता विरोधी ये लहर इसी तरह चलती रही तो गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान में बीजेपी को लेने के देने पड़ सकते हैं। जहां पहले किये गए वायदों का हिसाब बीजेपी को देना है। गुजरात के पिछले चुनावो में गरीबों को दस लाख घर देने का वायदा हवा में ही है।

Monday, March 6, 2017

नए बैंक चार्जिज ( Bank Charges ) से बचने के उपाय।

                   सरकार ने नोटबन्दी के बाद लोगों को इसके लिए मजबूर किया की वो अपने खर्चे चलाने के लिए नकद की बजाय डिज़िटल पेमेन्ट करें। उसके बाद डिज़िटल पेमेन्ट का प्लेटफार्म उपलब्ध करवाने वाली कम्पनियों ने इसका इस्तेमाल करने वालों पर कई तरह के चार्ज लगा दिए। उसके बाद अब बैंको ने भी छोटे ग्राहकों पर बैंक से लेनदेन करने पर कई तरह के चार्ज लगाने की घोषणा कर दी। बैंको में सामान्य आदमी जो सेविंग खाता रखता है और जो कर्मचारी सैलरी खाता रखते हैं, ये नए चार्ज उन पर लागू होंगे। एक तरफ सरकार ने कानून बना कर सैलरी को केवल बैंक में ट्रांसफर करने का आदेश जारी कर दिया और दूसरी तरफ बैंको ने उन खातों पर चार्ज लगाने की घोषणा कर दी। दूसरी तरफ सरकार ने आम आदमी को मिलने वाली हर तरह की सब्सिडी और सहायता के लिए बैंक खाता होने की शर्त लगा दी और बैंको ने उन पर चार्ज लगा दिया।
                     बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा कर्जा न चुकाने के चलते बैंको को जो घाटा हो रहा है उसे पूरा करने के लिए उन्हें आम आदमी की जेब काटने की छूट दे दी गयी। पहले तेल कम्पनियों को, उसके बाद रेल मंत्रालय को और  बैंको को ये छूट मुहैया करवा दी गयी है।  गरीबों के लिए काम करने वाली सरकार के फैसले हैं।
                    इसलिए लोगों को अब थोड़ा ध्यान से लेन देन करने की जरूरत है। बैंको ने ये चार्ज दो तरह से लगाए हैं। 

१.    बैंक में बचत खाता और सैलरी खाता धारकों को अब खाते में मिनिमम बैलेंस न रखने पर चार्ज लगेगा। 

२.     बैंक से पैसे निकालने, पैसे जमा करवाने और एटीएम  इस्तेमाल करने पर चार्ज लगेगा। 

                     इससे बचने के लिए कुछ चीजों का ध्यान रखने की जरूरत है। जैसे -

१.    सैलरी खाता धारक अपने खाते से सीधे कटने वाली होमलोन या व्हीकल लोन इत्यादि की किस्तों और दूसरी सीधी पेमेन्ट होने वाली रकम को छोड़कर बाकी पैसा एक ही बार में बैंक से निकाल लें। इस पैसे को घर पर रखें और बाकी महीने का खर्च चलायें। ये पैसा सीधे बैंक से चैक के द्वारा निकालें, क्योंकि एटीएम की लिमिट कम होती है और उससे एक बार में सारा पैसा नही निकाला जा सकता है। 
२.     बचत खाता धारक अपने बैंक खाते का कम से कम उपयोग करें। उसमे बार बार पैसे जमा करवाने और निकालने से बचें। 
३.    नकद की बजाय डिज़िटल पेमेंट करने पर आपको कभी भी किसी न किसी तरह का चार्ज लग सकता है। इसलिए छोटे लेनदेन के लिए नकदी का इस्तेमाल करें और बड़े लेनदेन के लिए चैक का इस्तेमाल करें। 

Thursday, March 2, 2017

राष्ट्रवाद पर अरुण जेटली

खबरी -- राष्ट्रवाद पर आज आये अरुण जेटली के बयान पर क्या कहना है ?

गप्पी -- अरुण जेटली ने कहा है की राष्ट्रवाद कोई खराब शब्द नही है, और केवल भारत में ही इसे गलत रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
              इस पर पहली बात तो ये है की पूरी दुनिया के मानवतावादी और जाने माने और प्रगतिशील लोग राष्ट्रवाद के बारे में कोई अच्छी राय नही रखते। इस पर हजारों लेख और टिप्पणियां मौजूद हैं और ये कोई भारत का सवाल नही है।
              दूसरे, इसे जो लोग प्रयोग करते हैं उनकी मंशा पर इसका अर्थ निर्भर करता है। कोई देश आजादी की लड़ाई में अपने देशवासियों को शामिल करने के लिए इसका प्रयोग कर सकता है , तो कोई इसे किसी हमलावर देश के खिलाफ लोगों को एकजुट करने के लिए राष्ट्रवाद शब्द का प्रयोग करता है।
                लेकिन हालात तब बिगड़ते हैं जब लोगों का कोई समूह अपने ही देश के लोगों के दूसरे समूह को गद्दार और देशविरोधी साबित करने के लिए राष्ट्रवाद शब्द का प्रयोग करता है , जैसा की आरएसएस और बीजेपी कर रहे हैं। ये लोग अपने हिसाब से राष्ट्रवाद की परिभाषा तय करते हैं और उसे दूसरों पर थोपते हैं। इस प्रयास में राष्ट्रवाद शब्द न केवल विभाजनकारी भूमिका निभाता है, बल्कि एक समुदाय के खिलाफ अत्याचार और जुल्म का पर्यायवाची बन जाता है। इस तरह के प्रयोग जर्मनी से लेकर अरब तक और अफ्रीका से लेकर भारत तक होते रहे हैं। इसलिए बुद्धिजीवी इसके दुरूपयोग की सम्भावनाओ को ध्यान में रखते हुए इसे बहुत अच्छा नही मानते।
                 लेकिन अरुण जेटली इस बात को जिस मौजूदा विवाद के सन्दर्भ में उठा रहे हैं उसमे क्या वो बताएंगे की क्या आजादी खराब शब्द है जिस पर आरएसएस और बीजेपी इतना हो-हल्ला मचाये हुए है ?